महाशिवरात्रि

महाशिवरात्रि हिंदू धर्म का पवित्र त्योहार है, जो भगवान शिव को समर्पित है।

महाशिवरात्रि कब मनाई जाती है:

हिंदू पंचांग के अनुसार माघ फाल्गुन कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को महाशिवरात्रि का पर्व मनाया जाता है इस रात ग्रह का उत्तरी गोलार्ध और नक्षत्रों की स्थिति ध्यान, पूजा उपासना के लिए बहुत शुभ मानी जाती है।


महाशिवरात्रि क्यों मनाई जाती है:

भगवान शिव ने वैराग्य त्याग कर देवी पार्वती संग इस दिन विवाह किया था।

समुद्र मंथन से निकले विष को भगवान शिव ने पीकर अपने कंठ में ही रोक लिया जिससे उनका पूरा शरीर नीला पड़ गया था इस कारण उनको नीलकंठ भी कहते हैं विष पीकर उन्होंने सम्पूर्ण सृष्टि और देवताओं को बचा लिया था तब से ही महाशिवरात्रि मनाई जाती है।

पौराणिक कथानुसार मां गंगा जब पृथ्वी पर अपने पूरे वेग उफान के साथ उतर रही थी तब भगवान शिव ने ही अपनी जटाओं में उन्हें धरा था और पृथ्वी को विनाश से बचाया था इसलिए इस दिन शिवलिंग का अभिषेक कर महाशिवरात्रि मनाई जाती है।

भगवान शिव के निराकार से साकार( लिंगस्वरुप) रूप में अवतरण की रात्रि ही महाशिवरात्रि कहलाती है।


महाशिवरात्रि कैसे मनाईं जाती है:

महाशिवरात्रि के दिन हम भगवान शिव की शिवलिंग के रूप में आराधना करते हैं उपवास, ध्यान के साथ भजन गाकर शिव की उपासना की जाती है।

मिट्टी या तांबे के लोटे में जल और दूध लेकर बेलपत्र, पुष्प,आक,धतूरे के फल शिवलिंग पर चढ़ाने के साथ शिव का मंत्र" ऊं नम शिवाय" का जाप करना चाहिए। शिव जी की आरती " जय शिव ओंकारा" करनी चाहिए।

शिव पुराण पाठ, महामृत्युंजय मंत्र, शिव पंचक, शिव स्तुति, शिव अष्टक, शिव चालीसा, शिव रुद्राष्टक, शिव के श्लोक,सहस्रनामों का पाठ भी किया जाता है।

श्री शिव प्रातः स्मरण स्तोत्रम

प्रातः स्मरामि भवभीतिहरं सुरेशं

गंगाधरं वृषभवाहनमम्बिकेशम् ।

खटवाङ्गशूलवरदाभ्यहस्तमीशं

संसारघर्मौषधमद्वितीयम् ॥1॥

प्रातर्नमामिष गिरं गिरिजार्देहं सर्गस्थितिप्रलयकारणमादिदेवम् ।

विश्वेश्वरं विजितविश्वमनोभिरामं संसाररोगहरमौषधमद्वितीयम् ॥2॥

प्रातःजामि शिवमेकंमनन्तमाद्यं वेदान्तवेद्यमन्घं पुरुषं महान्तम् ।

नामादिभेदरहितं सदभावशून्यं संसाररोगहरमौषधमद्वितीयम् ॥3॥

प्रातः समुत्थाय शिवम विचिन्त्य श्लोकत्रयम येनुदिनम पढन्ति

ये दु:खजातम बहुजन्मसंचितम हित्वा पदम् यान्ति तदैव शम्भो:


चालीसा / दोहा


अज अनादि अविगत अलख, अकल अतुल अविकार।

बंदौं शिव-पद-युग-कमल अमल अतीव उदार।। 1।।

आर्तिहरण सुखकरण शुभ भक्ति-मुक्ति-दातार।

करौ अनुग्रह दीन लखि अपनो विरद विचार।। 2।।


पर्यो पतित भवकूप महँ सहज नरक आगार।

सहज सुहृद पावन-पतित, सहजहि लेहु उबार।। 3।।

पलक-पलक आशा भर्यो, रह्यो सुबाट निहार।

ढरौ तुरंत स्वभाववश, नेक न करौ अबार।। 4।।








  • श्री शिव चालीसा / चालीसा

    • दोहा


अज अनादि अविगत अलख, अकल अतुल अविकार।

बंदौं शिव-पद-युग-कमल अमल अतीव उदार।। 1।।


आर्तिहरण सुखकरण शुभ भक्ति-मुक्ति-दातार।

करौ अनुग्रह दीन लखि अपनो विरद विचार।। 2।।


पर्यो पतित भवकूप महँ सहज नरक आगार।

सहज सुहृद पावन-पतित, सहजहि लेहु उबार।। 3।।

पलक-पलक आशा भर्यो, रह्यो सुबाट निहार।

ढरौ तुरंत स्वभाववश, नेक न करौ अबार।। 4।।



जय शिव शंकर औढरदानी। जय गिरितनया मातु भवानी ।। 1 ।।


सर्वोत्तम योगी योगेश्वर। सर्वलोक-ईश्वर-परमेश्वर।। 2 ।।


सब उर प्रेरक सर्वनियन्ता। उपद्रष्टा भर्ता अनुमन्ता।। 3 ।।


पराशक्ति-पति अखिल विश्वपति। परब्रह्म परधाम परमगति।। 4 ।।



सर्वातीत अनन्य सर्वगत। निजस्वरूप महिमा में स्थितरत।। 5 ।।


अंगभूति-भूषित श्मशानचर। भुंजगभूषण चन्द्रमुकुटधर।। 6 ।।


वृष वाहन नंदी गणनायक। अखिल विश्व के भाग्य विधायक।। 7 ।।


व्याघ्रचर्म परिधान मनोहर। रीछचर्म ओढे गिरिजावर।। 8 ।।


कर त्रिशूल डमरूवर राजत। अभय वरद मुद्रा शुभ साजत।। 9 ।।


तनु कर्पूर-गौर उज्ज्वलतम। पिंगल जटाजूट सिर उत्तम।। 10 ।।


भाल त्रिपुण्ड मुण्डमालाधर। गल रूद्राक्ष-माल शोभाकर।। 11 ।।


विधि-हरी-रूद्र त्रिविध वपुधारी। बने सृजन-पालन-लयकारी।। 12 ।।


तुम हो नित्य दया के सागर। आशुतोष आनन्द-उजागर।। 13 ।।


अति दयालु भोले भण्डारी। अग-जग सब के मंगलकारी।। 14 ।।


सती-पार्वती के प्राणेश्वर। स्कन्द-गणेश-जनक शिव सुखकर।। 15 ।।


हरि-हर एक रूप गुणशीला। करत स्वामि-सेवक की लीला।। 16 ।।


रहते दोउ पूजत पूजवावत। पूजा-पद्धति सबन्हि सिखावत।। 17 ।।


मारूति बन हरि-सेवा कीन्ही। रामेश्वर बन सेवा लीन्ही।। 18 ।।


जग-हित घोर हलाहल पीकर। बने सदाशिव नीलकण्ठ वर।। 19 ।।


असुरासुर शुचि वरद शुभंकर। असुरनिहन्ता प्रभु प्रलयंकर।। 20 ।।


‘नमः शिवायः’ मंत्र पंचाक्षर। जपत मिटत सब क्लेश भयंकर।। 21 ।।


जो नर-नारि रटत शिव-शिव नित।

तिनको शिव अति करत परमहित।। 22 ।।


श्रीकृष्ण तप कीन्हो भारी।

भये प्रसन्न वर दियो पुरारी।। 23 ।।


अर्जुन संग लड़े किरात बन।

दियो पाशुपत-अस्त्र मुदित मन।। 24 ।।


भक्तन के सब कष्ट निवारे।

दे निज भक्ति सबन्हि उद्धारे।। 25 ।।


शंखचूड़ जालंधर मारे।

दैत्य असंख्य प्राण हर तारे।। 26 ।।


अन्धक को गणपति पद दीन्हों।

शुक्र शुक्रपथ बाहर कीन्हों।। 27 ।।


तेहि सजीवनि विद्या दीन्हीं।

बाणासुर गणपति गति कीन्हीं।। 28 ।।


अष्टमुर्ति पंचानन चिन्मय।

द्वादश ज्योतिर्लिंग ज्योतिर्मय।। 29 ।।


भुवन चतुर्दश व्यापक रूपा।

अकथ अचिन्त्य असीम अनूपा।। 30 ।।


काशी मरत जंतु अवलोकी।

देत मुक्ति पद करत अशोकी।। 31 ।।


भक्त भगीरथ की रूचि राखी।

जटा बसी गंगा सुर साखी।। 32 ।।


रूरू अगस्तय उपमन्यू ज्ञानी।

ऋषि दधीचि आदिक विज्ञानी।। 33 ।।


शिवरहस्य शिवज्ञान प्रचारक।

शिवहिं परमप्रिय लोकोद्धारक।। 34 ।।


इनके शुभ सुमिरनतें शंकर।

देत मुदित हृै अति दुर्लभ वर।। 35 ।।


अति उदार करूणावरूणालय।

हरण दैन्य-दारिद्र्य-दुःख-भय।। 36 ।।


तुम्हरो भजन परम हितकारी।

विप्र शूद्र सब ही अधिकारी।। 37 ।।


बालक वृद्ध नारि-नर ध्यावहिं।

ते अलभ्य शिवपद को पावहिं।। 38 ।।


भेदशून्य तुम सब के स्वामी।

सहज-सुहृद सेवक अनुगामी।। 39 ।।


जो जन शरण तुम्हारी आवण।

सकल दुरित तत्काल नशावत।। 40 ।।


  • दोहा


बहन करौ तुम शीलवश, निज जनकौ सब भार।

गनौ न अघ, अघ जाति कछु, सब विधि करौ संभार।।1।।


तुम्हरो शील स्वाभव लखि, जो न शरण तव होय।

तेहि सम कुटिल कुबुद्धि जन, नही कुभाग्य जन कोय।।2।।


दीन-हीन अति मलिन मति, मैं अघ-ओघ अपार।

कृपा-अनल प्रगटौ तुरत, करौ पाप सब क्षार।।3।।


कृपा सुधा बरसाय पुनि, शीतल करौ पवित्र।

राखौ पदकमलनि सदा, हे कुपात्र के मित्र।।4।।


  • ।। श्री शिवाष्टक ।।


आदि अनादि अनंत अखंड अभेद अखेद सुबेद बतावैं ।

अलग अगोचर रूप महेस कौ जोगि-जति-मुनि ध्यान न पावैं ॥

आगम-निगम-पुरान सबै इतिहास सदा जिनके गुन गावैं ।

बड़भागी नर-नारि सोई जो साम्ब-सदाशिव कौं नित ध्यावैं ॥1॥


सृजन सुपालन-लय-लीला हित जो बिधि-हरि-हर रूप बनावैं ।

एकहि आप बिचित्र अनेक सुबेष बनाइ कैं लीला रचावैं ॥

सुंदर सृष्टि सुपालन करि जग पुनि बन काल जु खाय पचावैं ।

बड़भागी नर-नारि सोई जो साम्ब-सदाशिव कौं नित ध्यावैं ॥2॥


अगुन अनीह अनामय अज अविकार सहज निज रूप धरावैं ।

परम सुरम्य बसन-आभूषन सजि मुनि-मोहन रूप करावैं ॥

ललित ललाट बाल बिधु बिलसै रतन-हार उर पै लहरावैं।

बड़भागी नर-नारि सोई जो साम्ब-सदाशिव कौं नित ध्यावैं ॥3॥


अंग बिभूति रमाय मसानकी बिषमय भुजगनि कौं लपटावैं ।

नर-कपाल कर मुंडमाल गल, भालु-चरम सब अंग उढ़ावैं ॥

घोर दिगंबर, लोचन तीन भयानक देखि कैं सब थर्रावैं ।

बड़भागी नर-नारि सोई जो साम्ब-सदाशिव कौं नित ध्यावैं ॥4॥


सुनतहि दीनकी दीन पुकार दयानिधि आप उबारन धावैं ।

पहुँच तहाँ अविलंब सुदारून मृत्युको मर्म बिदारि भगावैं ॥

मुनि मृकंडु-सुतकी गाथा सुचि अजहुँ बिग्यजन गाई सुनावैं ।

बड़भागी नर-नारि सोई जो साम्ब-सदाशिव कौं नित ध्यावैं ॥5॥


चाउर चारि जो फूल धतूरके, बेलके पात औ पानि चढ़ावैं ।

गाल बजाय कै बोल जो ‘हरहर महादेव’ धुनि जोर लगावैं ॥

तिनहिं महाफल देय सदासिव सहजहि भुक्ति-मुक्ति सो पावैं ।

बड़भागी नर-नारि सोई जो साम्ब-सदाशिव कौं नित ध्यावैं ॥6॥


बिनसि दोष दुख दुरित दैन्य दारिद्रय नित्य सुख-सांति मिलावैं ।

आसुतोष हर पाप-ताप सब निरमल बुद्धि-चित्त बकसावैं ॥

असरन-सरन काटि भवबंधन भव निज भवन भव्य बुलवावैं ।

बड़भागी नर-नारि सोई जो साम्ब-सदाशिव कौं नित ध्यावैं ॥7॥


औढरदानि, उदार अपार जु नैकु-सी सेवा तें ढुरि जावैं ।

दमन असांति, समन सब संकट, बिरद बिचार जनहि अपनावैं ॥

ऐसे कृपालु कृपामय देव के क्यों न सरन अबहीं चलि जावैं ।

बड़भागी नर-नारि सोई जो साम्ब-सदाशिव कौं नित ध्यावैं ॥8॥


।। इति श्री शिवाष्टक सम्पूर्ण


दारिद्र्य दहन शिव स्तोत्र और अर्थ


विश्वेश्वराय नरकार्णव तारणाय

कर्णामृताय शशिशेखर धारणाय

कर्पूरकांति धवलाय जटाधराय

दारिद्र्यदु:खदहनाय नम: शिवाय।।1।।

समस्त चराचर विश्व के स्वामि रूप विश्वेश्वर, नरकरूपी संसार सागर से उद्धार करने वाले, कर्ण से श्रवण करने में अमृत के समान नाम वाले, अपने भाल पर चन्द्रमा को आभूषण रूप में धारण करने वाले, कर्पूर की कान्ति के समान धवल वर्ण वाले, जटाधारी और दरिद्रतारूपी दुःख के विनाशक भगवान शिव को मेरा नमस्कार है।।1।।

गौरीप्रियाय रजनीशकलाधराय

कालान्तकाय भुजगाधिपकंकणाय

गंगाधराय गजराज विमर्दनाय

दारिद्र्यदु:खदहनाय नम: शिवाय।।2।।

गौरी के अत्यन्त प्रिय, रजनीश्वर (चन्द्र) की कला को धारण करने वाले, काल के भी अंतक (यम) रूप, नागराज को कंकण रूप में धारण करने वाले, अपने मस्तक पर गंगा को धारण करने वाले, गजराज का विमर्दन करने वाले और दरिद्रतारूपी दुःख के विनाशक भगवान शिव को मेरा नमस्कार है।।2।।


भक्तिप्रियाय भवरोग भयापहाय

उग्राय दुर्गभवसागर तारणाय।

ज्योतिर्मयाय गुणनाम सुनृत्यकाय

दारिद्र्यदु:खदहनाय नम: शिवाय।।3।।

भक्ति के प्रिय, संसाररूपी रोग एवं भय के विनाशक, संहार के समय उग्ररूपधारी, दुर्गम भवसागर से पार कराने वाले, ज्योति स्वरूप, अपने गुण और नाम के अनुसार सुन्दर नृत्य करने वाले तथा दरिद्रतारूपी दु:ख के विनाशक भगवान शिव को मेरा नमस्कार है।।3।।

चर्माम्बराय शवभस्म विलेपनाय

भालेक्षणाय मणिकुंडल मण्डिताय

मञ्जीर पादयुगलाय जटाधराय

दारिद्र्यदु:खदहनाय नम: शिवाय।।4।।

व्याघ्र चर्मधारी, चिता भस्म को लगाने वाले, भाल में तृतीय नेत्रधारी, मणियों के कुण्डल से सुशोभित, अपने चरणों में नूपुर धारण करने वाले जटाधारी और दरिद्रतारूपी दु:ख के विनाशक भगवान शिव को मेरा नमस्कार है।।4।।


पञ्चाननाय फनिराजविभूषणाय

हेमांशुकाय भुवनत्रयमण्डिताय

आनंदभूमिवरदाय तमोमयाय

दारिद्र्यदु:खदहनाय नम: शिवाय।।5।।

पांच मुख वाले, नागराजरूपी आभूषणों से सुसज्जित, सुवर्ण के समान वस्त्र वाले अथवा सुवर्ण के समान किरण वाले, तीनों लोकों में पूजित, आनन्दभूमि (काशी) को वर प्रदान करने वाले, सृष्टि के संहार के लिए तमोगुणाष्टि होने वाले तथा दरिद्रतारूपी दु:ख के विनाशक भगवान शिव को मेरा नमस्कार है।।5।।

भानुप्रियाय भवसागर तारणाय

कालान्तकाय कमलासन पूजिताय

नेत्रत्रयाय शुभलक्षणलक्षिताय

दारिद्र्यदु:खदहनाय नम: शिवाय।।6।।

सूर्य को अत्यन्त प्रिय अथवा सूर्य के प्रेमी, भवसागर से उद्धार करने वाले, काल के लिए भी महाकालस्वरूप, कमलासन (ब्रह्मा) से सुपूजित, तीन नेत्रों को धारण करने वाले, शुभ लक्षणों से युक्त तथा दरिद्रतारूपी दु:ख के विनाशक भगवान शिव को मेरा नमस्कार है।।6।।


रामप्रियाय रघुनाथवरप्रदाय

नागप्रियाय नरकार्णवतारणाय

पुण्येषु पुण्यभरिताय सुरार्चिताय

दारिद्र्यदु:खदहनाय नम: शिवाय।।7।।

मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम को अत्यन्त प्रिय अथवा राम से प्रेम करने वाले, रघुनाथ को वर देने वाले, सर्पों के अतिप्रिय, भवसागररूपी नरक से तारने वाले, पुण्यवानों में परिपूर्ण पुण्य वाले, समस्त देवताओं से सुपूजित तथा दरिद्रतारूपी दु:ख के विनाशक भगवान शिव को मेरा नमस्कार है।।7।।

मुक्तेश्वराय फलदाय गणेश्वराय

गीतप्रियाय वृषभेश्वर वाहनाय

मातंग चर्मवसनाय महेश्वराय

दारिद्र्यदु:खदहनाय नम: शिवाय।।8।।

मुक्तजनों के स्वामिरूप, पुरुषार्थ चतुष्टय रूप फल को देने वाले, प्रमथादि गणों के स्वामी, स्तुतिप्रिय, नन्दी वाहन, गज चर्म को वस्त्र रूप में धारण करने वाले, महेश्वर तथा दरिद्रतारूपी दु:ख के विनाशक भगवान शिव को मेरा नमस्कार है।।8।।


वसिष्ठेन कृतं स्तोत्रं सर्वरोगनिवारणम्।

सर्वसम्पत्करं शीघ्रं पुत्रपौत्रादिवर्धनम्।

त्रिसन्ध्यं य: पठेन्नित्यं स हि स्वर्गमवाप्नुयात्।।9।।

।।इस प्रकार महर्षि वसिष्ठ विरचित दारिद्र्य दहन शिव स्तोत्र सम्पूर्णम् ।।



श्री शिव रूद्राष्टकम


नमामीशमीशान निर्वाण रूपं, विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदः स्वरूपम् ।

निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं, चिदाकाश माकाशवासं भजेऽहम् ॥

निराकार मोंकार मूलं तुरीयं, गिराज्ञान गोतीतमीशं गिरीशम् ।

करालं महाकाल कालं कृपालुं, गुणागार संसार पारं नतोऽहम् ॥

तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरं, मनोभूत कोटि प्रभा श्री शरीरम् ।

स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारू गंगा, लसद्भाल बालेन्दु कण्ठे भुजंगा॥

चलत्कुण्डलं शुभ्र नेत्रं विशालं, प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालम् ।

मृगाधीश चर्माम्बरं मुण्डमालं, प्रिय शंकरं सर्वनाथं भजामि ॥

प्रचण्डं प्रकष्टं प्रगल्भं परेशं, अखण्डं अजं भानु कोटि प्रकाशम् ।

त्रयशूल निर्मूलनं शूल पाणिं, भजेऽहं भवानीपतिं भाव गम्यम् ॥

कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी, सदा सच्चिनान्द दाता पुरारी।

चिदानन्द सन्दोह मोहापहारी, प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी ॥

न यावद् उमानाथ पादारविन्दं, भजन्तीह लोके परे वा नराणाम् ।

न तावद् सुखं शांति सन्ताप नाशं, प्रसीद प्रभो सर्वं भूताधि वासं ॥

न जानामि योगं जपं नैव पूजा, न तोऽहम् सदा सर्वदा शम्भू तुभ्यम् ।

जरा जन्म दुःखौघ तातप्यमानं, प्रभोपाहि आपन्नामामीश शम्भो ॥

रूद्राष्टकं इदं प्रोक्तं विप्रेण हर्षोतये

ये पठन्ति नरा भक्तयां तेषां शंभो प्रसीदति।।


॥ इति श्रीगोस्वामितुलसीदासकृतं श्रीरुद्राष्टकं सम्पूर्णम् ॥> >


शिव तांडव स्तोत्र


जटा टवी गलज्जलप्रवाह पावितस्थले गलेऽव लम्ब्यलम्बितां भुजंगतुंग मालिकाम्‌।

डमड्डमड्डमड्डमन्निनाद वड्डमर्वयं चकारचण्डताण्डवं तनोतु नः शिव: शिवम्‌ ॥१॥


उनके बालों से बहने वाले जल से उनका कंठ पवित्र है,

और उनके गले में सांप है जो हार की तरह लटका है,

और डमरू से डमट् डमट् डमट् की ध्वनि निकल रही है,

भगवान शिव शुभ तांडव नृत्य कर रहे हैं, वे हम सबको संपन्नता प्रदान करें।



जटाकटा हसंभ्रम भ्रमन्निलिंपनिर्झरी विलोलवीचिवल्लरी विराजमानमूर्धनि।

धगद्धगद्धगज्ज्वल ल्ललाटपट्टपावके किशोरचंद्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम: ॥२॥


मेरी शिव में गहरी रुचि है,

जिनका सिर अलौकिक गंगा नदी की बहती लहरों की धाराओं से सुशोभित है,

जो उनकी बालों की उलझी जटाओं की गहराई में उमड़ रही हैं?

जिनके मस्तक की सतह पर चमकदार अग्नि प्रज्वलित है,

और जो अपने सिर पर अर्ध-चंद्र का आभूषण पहने हैं।



धराधरेंद्रनंदिनी विलासबन्धुबन्धुर स्फुरद्दिगंतसंतति प्रमोद मानमानसे।

कृपाकटाक्षधोरणी निरुद्धदुर्धरापदि क्वचिद्विगम्बरे मनोविनोदमेतु वस्तुनि ॥३॥


मेरा मन भगवान शिव में अपनी खुशी खोजे,

अद्भुत ब्रह्माण्ड के सारे प्राणी जिनके मन में मौजूद हैं,

जिनकी अर्धांगिनी पर्वतराज की पुत्री पार्वती हैं,

जो अपनी करुणा दृष्टि से असाधारण आपदा को नियंत्रित करते हैं, जो सर्वत्र व्याप्त है,

और जो दिव्य लोकों को अपनी पोशाक की तरह धारण करते हैं।



जटाभुजंगपिंगल स्फुरत्फणामणिप्रभा कदंबकुंकुमद्रव प्रलिप्तदिग्व धूमुखे।

मदांधसिंधु रस्फुरत्वगुत्तरीयमेदुरे मनोविनोदद्भुतं बिंभर्तुभूत भर्तरि ॥४॥


मुझे भगवान शिव में अनोखा सुख मिले, जो सारे जीवन के रक्षक हैं,

उनके रेंगते हुए सांप का फन लाल-भूरा है और मणि चमक रही है,

ये दिशाओं की देवियों के सुंदर चेहरों पर विभिन्न रंग बिखेर रहा है,

जो विशाल मदमस्त हाथी की खाल से बने जगमगाते दुशाले से ढंका है।


सहस्रलोचन प्रभृत्यशेषलेखशेखर प्रसूनधूलिधोरणी विधूसरां घ्रिपीठभूः।

भुजंगराजमालया निबद्धजाटजूटकः श्रियैचिरायजायतां चकोरबंधुशेखरः ॥५॥


भगवान शिव हमें संपन्नता दें,जिनका मुकुट चंद्रमा है,जिनके बाल लाल नाग के हार से बंधे हैं,

जिनका पायदान फूलों की धूल के बहने से गहरे रंग का हो गया है,जो इंद्र, विष्णु और अन्य देवताओं के सिर से गिरती है।


ललाटचत्वरज्वल द्धनंजयस्फुलिंगभा निपीतपंच सायकंनम न्निलिंपनायकम्‌।

सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं महाकपालिसंपदे शिरोजटालमस्तुनः ॥६॥


शिव के बालों की उलझी जटाओं से हम सिद्धि की दौलत प्राप्त करें,

जिन्होंने कामदेव को अपने मस्तक पर जलने वाली अग्नि की चिनगारी से नष्ट किया था,

जो सारे देवलोकों के स्वामियों द्वारा आदरणीय हैं,

जो अर्ध-चंद्र से सुशोभित हैं।




करालभालपट्टिका धगद्धगद्धगज्ज्वल द्धनंजया धरीकृतप्रचंड पंचसायके।

धराधरेंद्रनंदिनी कुचाग्रचित्रपत्र कप्रकल्पनैकशिल्पिनी त्रिलोचनेरतिर्मम ॥७॥


मेरी रुचि भगवान शिव में है, जिनके तीन नेत्र हैं,

जिन्होंने शक्तिशाली कामदेव को अग्नि को अर्पित कर दिया,

उनके भीषण मस्तक की सतह डगद् डगद्... की घ्वनि से जलती है,

वे ही एकमात्र कलाकार है जो पर्वतराज की पुत्री पार्वती के स्तन की नोक पर,सजावटी रेखाएं खींचने में निपुण हैं।



नवीनमेघमंडली निरुद्धदुर्धरस्फुर त्कुहुनिशीथनीतमः प्रबद्धबद्धकन्धरः।

निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिंधुरः कलानिधानबंधुरः श्रियं जगंद्धुरंधरः ॥८॥


भगवान शिव हमें संपन्नता दें,वे ही पूरे संसार का भार उठाते हैं,जिनकी शोभा चंद्रमा है,जिनके पास अलौकिक गंगा नदी है,जिनकी गर्दन गला बादलों की पर्तों से ढंकी अमावस्या की अर्धरात्रि की तरह काली है।


प्रफुल्लनीलपंकज प्रपंचकालिमप्रभा विडंबि कंठकंध रारुचि प्रबंधकंधरम्‌।

स्मरच्छिदं पुरच्छिंद भवच्छिदं मखच्छिदं गजच्छिदांधकच्छिदं तमंतकच्छिदं भजे ॥९॥


मैं भगवान शिव की प्रार्थना करता हूं, जिनका कंठ मंदिरों की चमक से बंधा है,

पूरे खिले नीले कमल के फूलों की गरिमा से लटकता हुआ,

जो ब्रह्माण्ड की कालिमा सा दिखता है।

जो कामदेव को मारने वाले हैं, जिन्होंने त्रिपुर का अंत किया,

जिन्होंने सांसारिक जीवन के बंधनों को नष्ट किया, जिन्होंने बलि का अंत किया,

जिन्होंने अंधक दैत्य का विनाश किया, जो हाथियों को मारने वाले हैं,

और जिन्होंने मृत्यु के देवता यम को पराजित किया।


अखर्वसर्वमंगला कलाकदम्बमंजरी रसप्रवाह माधुरी विजृंभणा मधुव्रतम्‌।

स्मरांतकं पुरातकं भावंतकं मखांतकं गजांतकांधकांतकं तमंतकांतकं भजे ॥१०॥


मैं भगवान शिव की प्रार्थना करता हूं, जिनके चारों ओर मधुमक्खियां उड़ती रहती हैं

शुभ कदंब के फूलों के सुंदर गुच्छे से आने वाली शहद की मधुर सुगंध के कारण,

जो कामदेव को मारने वाले हैं, जिन्होंने त्रिपुर का अंत किया,

जिन्होंने सांसारिक जीवन के बंधनों को नष्ट किया, जिन्होंने बलि का अंत किया,

जिन्होंने अंधक दैत्य का विनाश किया, जो हाथियों को मारने वाले हैं,

और जिन्होंने मृत्यु के देवता यम को पराजित किया।



जयत्वदभ्रविभ्रम भ्रमद्भुजंगमस्फुरद्ध गद्धगद्विनिर्गमत्कराल भाल हव्यवाट्।

धिमिद्धिमिद्धि मिध्वनन्मृदंग तुंगमंगलध्वनिक्रमप्रवर्तित: प्रचण्ड ताण्डवः शिवः ॥११॥


शिव, जिनका तांडव नृत्य नगाड़े की ढिमिड ढिमिड

तेज आवाज श्रंखला के साथ लय में है,

जिनके महान मस्तक पर अग्नि है, वो अग्नि फैल रही है नाग की सांस के कारण,गरिमामय आकाश में गोल-गोल घूमती हुई।


दृषद्विचित्रतल्पयो र्भुजंगमौक्तिकमस्र जोर्गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः।

तृणारविंदचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः समं प्रवर्तयन्मनः कदा सदाशिवं भजे ॥१२॥


मैं भगवान सदाशिव की पूजा कब कर सकूंगा, शाश्वत शुभ देवता,

जो रखते हैं सम्राटों और लोगों के प्रति समभाव दृष्टि,

घास के तिनके और कमल के प्रति, मित्रों और शत्रुओं के प्रति,

सर्वाधिक मूल्यवान रत्न और धूल के ढेर के प्रति,

सांप और हार के प्रति और विश्व में विभिन्न रूपों के प्रति?



कदा निलिंपनिर्झरी निकुंजकोटरे वसन्‌ विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरःस्थमंजलिं वहन्‌।

विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः शिवेति मंत्रमुच्चरन्‌ कदा सुखी भवाम्यहम्‌ ॥१३॥


मैं कब प्रसन्न हो सकता हूं, अलौकिक नदी गंगा के निकट गुफा में रहते हुए,

अपने हाथों को हर समय बांधकर अपने सिर पर रखे हुए,

अपने दूषित विचारों को धोकर दूर करके, शिव मंत्र को बोलते हुए,

महान मस्तक और जीवंत नेत्रों वाले भगवान को समर्पित?



इमं हि नित्यमेव मुक्तमुक्तमोत्तम स्तवं पठन्स्मरन्‌ ब्रुवन्नरो विशुद्धमेति संततम्‌।

हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथागतिं विमोहनं हि देहिनां सुशंकरस्य चिंतनम् ॥१६॥


इस स्तोत्र को, जो भी पढ़ता है, याद करता है और सुनाता है,वह सदैव के लिए पवित्र हो जाता है और महान गुरु शिव की भक्ति पाता है।

इस भक्ति के लिए कोई दूसरा मार्ग या उपाय नहीं है।बस शिव का विचार ही भ्रम को दूर कर देता है।



॥ श्रीशिवपञ्चाक्षरस्तोत्रम् ॥


नागेन्द्रहाराय त्रिलोचनाय,

भस्माङ्गरागाय महेश्वराय ।

नित्याय शुद्धाय दिगम्बराय,

तस्मै न काराय नमः शिवाय ॥१॥


मन्दाकिनी सलिलचन्दन चर्चिताय,

नन्दीश्वर प्रमथनाथ महेश्वराय ।

मन्दारपुष्प बहुपुष्प सुपूजिताय,

तस्मै म काराय नमः शिवाय ॥२॥


शिवाय गौरीवदनाब्जवृन्द,

सूर्याय दक्षाध्वरनाशकाय ।

श्रीनीलकण्ठाय वृषध्वजाय,

तस्मै शि काराय नमः शिवाय ॥३॥


वसिष्ठकुम्भोद्भवगौतमार्य,

मुनीन्द्रदेवार्चितशेखराय।

चन्द्रार्क वैश्वानरलोचनाय,

तस्मै व काराय नमः शिवाय ॥४॥


यक्षस्वरूपाय जटाधराय,

पिनाकहस्ताय सनातनाय ।

दिव्याय देवाय दिगम्बराय,

तस्मै य काराय नमः शिवाय ॥५॥


पञ्चाक्षरमिदं पुण्यं यः पठेच्छिवसन्निधौ ।

शिवलोकमवाप्नोति शिवेन सह मोदते ॥


हिन्दी अनुवाद:

शिवपञ्चाक्षर स्तोत्र के रचयिता आदि गुरु शंकराचार्य हैं, जो परम शिवभक्त थे। शिवपञ्चाक्षर स्तोत्र पंचाक्षरी मन्त्र नमः शिवाय पर आधारित है।

न – पृथ्वी तत्त्व का

म – जल तत्त्व का

शि – अग्नि तत्त्व का

वा – वायु तत्त्व का और

य – आकाश तत्त्व का प्रतिनिधित्व करता है।


जिनके कण्ठ में सर्पों का हार है, जिनके तीन नेत्र हैं, भस्म ही जिनका अंगराग है और दिशाएँ ही जिनका वस्त्र हैं अर्थात् जो दिगम्बर (निर्वस्त्र) हैं ऐसे शुद्ध अविनाशी महेश्वर न कारस्वरूप शिव को नमस्कार है॥1॥


गङ्गाजल और चन्दन से जिनकी अर्चना हुई है, मन्दार-पुष्प तथा अन्य पुष्पों से जिनकी भलिभाँति पूजा हुई है। नन्दी के अधिपति, शिवगणों के स्वामी महेश्वर म कारस्वरूप शिव को नमस्कार है॥2॥


जो कल्याणस्वरूप हैं, पार्वतीजी के मुखकमल को प्रसन्न करने के लिए जो सूर्यस्वरूप हैं, जो दक्ष के यज्ञ का नाश करनेवाले हैं, जिनकी ध्वजा में वृषभ (बैल) का चिह्न शोभायमान है, ऐसे नीलकण्ठ शि कारस्वरूप शिव को नमस्कार है॥3॥


वसिष्ठ मुनि, अगस्त्य ऋषि और गौतम ऋषि तथा इन्द्र आदि देवताओं ने जिनके मस्तक की पूजा की है, चन्द्रमा, सूर्य और अग्नि जिनके नेत्र हैं, ऐसे व कारस्वरूप शिव को नमस्कार है॥4॥


जिन्होंने यक्ष स्वरूप धारण किया है, जो जटाधारी हैं, जिनके हाथ में पिनाक* है, जो दिव्य सनातन पुरुष हैं, ऐसे दिगम्बर देव य कारस्वरूप शिव को नमस्कार है॥5॥


जो शिव के समीप इस पवित्र पञ्चाक्षर स्तोत्र का पाठ करता है, वह शिवलोक को प्राप्त होता है और वहाँ शिवजी के साथ आनन्दित होता है।

* पिनाक: शिवधनुष




आरती

आरति परम साब-शंकर की।

सत्य सनातन शिव शुभकर की॥

आदि, अनादि, अनन्त, अनामय।

अज, अविनाशी, अकल, कलामय।

सर्वरहित नित सर्व-‌उरालय।

मस्तक सुरसरिधर शशिधर की।

आरति परम साब-शंकर की॥

कर्ता, भर्ता, जगसंहारी।

ब्रह्मात्त, विष्णु, रुद्र तनुधारी।

सर्वविकाररूप अविकारी।

अग-जग-पालक प्रलयंकर की।

आरति परम साब-शंकर की॥

विश्वातीत विश्वगत स्वामी।

द्रष्टस्न साक्षी अन्तर्यामी।

काम-काल सब-जग-हित कामी।

अनघ-स्वरूप सकल अघहर की।

आरति परम साब-शंकर की॥

मुनि-मन-हरण मधुर शुचि सुंदर।

अति कमनीय रूप सुषमावर।

दिव्याबर रत्नाभूषणधर।

सर्व-नयन-मन-हर सुखकर की।

आरति परम साब-शंकर की॥

विकट कराल पञ्चमुखधारी।

मुण्डमाल विषधर भयकारी।

हाथ कपाल श्मशान-विहारी।

वेष अमंगल मंगलकर की।

आरति परम साब-शंकर की॥

भोगी, योगी, ध्यानी, ज्ञानी।

जग-‌अभिमानाधार अमानी।

आशुतोष अति औढरदानी।

दैन्य-दुरित-दुर्गतिहर हर की !

आरति परम साब-शंकर की॥